Friday, March 29, 2013

मेरी नई किताब



सिनेमा का सफर - निर्देशकों के साथ



किसी फिल्म के साथ निर्देशक के आत्मीय जुड़ाव को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। इसे सिर्फ वही महसूस कर सकता है, जिसने अभिव्यक्ति के असीमित रंगों में खुद को डुबो दिया हो। जब हम उनकी फिल्मों की चर्चा करते हैं, तो एक प्रकार से हम उनकी विलक्षण योग्यता और विलक्षण दृष्टि को ही याद करते हैं। यह दृष्टि जीवन को देखने मात्र की दृष्टि नहीं है, बल्कि इससे कुछ अधिक ही है। कुछ अर्थों में यह दृष्टि मानवतावादी पहलू पर आधारित है, जिसके सहारे फिल्मकार जीवन की लय और ताल को सुनने की कोशिश करते हैं। 
जाने-माने फिल्म पत्रकार श्याम माथुर की हाल ही प्रकाशित किताब ‘सिनेमा का स$फर - निर्देशकों के साथ’ ऐसे ही चंद फिल्मकारों की रचनात्मकता को समझने की एक अहम कोशिश है। इस किताब में उन्होंने दस समकालीन निर्देशकों के विस्तृत इंटरव्यू शामिल किए हैं और इस तरह आधुनिक सिनेमा की नवीन प्रवृत्तियों को समझने का प्रयास किया है। ये ऐसे फिल्मकार हैं, जिन्होंने व्यावसायिक सिनेमा के प्रचलित फॉर्मूलों के भीतर रहते हुए भी सिनेमाई मनोरंजन का एक नया मुहावरा रचने की कोशिश की है और इसमें वे किसी हद तक कामयाब भी हुए हैं।
किताब के बारे में अपनी लंबी और जज्बाती भूमिका में श्याम माथुर लिखते हैं, ‘सिनेमा के किस्सों में इंसानी जिंदगी के तमाम उतार-चढ़ाव और वो सारे जज्बात हमेशा मौजूद रहे हैं, जिनके सहारे सिनेमा हमारे दिल को हौले से छूकर गुजरता है। पिछले सौ वर्षों से यानी अपने जन्म से लेकर आज तक सिनेमा हमारे सुख-दुख का साथी रहा है। फिल्मों ने हमें हंसना और रोना सिखाया है, हमें अपने सपनों को नई बुलंदी देना सिखाया है, हमारी खुशियों को कहकहों की आवाज दी है, तो हमारे गमों को आंसुओं की सौगात भी दी है। ऐसे तमाम लोग मिल जाएंगे, जिनकी जिंदगी का कोई लम्हा ऐसा नहीं है, जिसे सिनेमाई जादू छूकर नहीं गुजरा हो। हमारी जिंदगी के जटिल प्रसंगों को कैसे और कब सरलता से दिल में उतार देता है सिनेमा, इसका जब हमें पता चलता है, तब तक हम सिनेमा की गिरफ्त में पूरी तरह डूब चुके होते हैं। फ्रेम दर फ्रेम कहानी आगे बढ़ती जाती है और जैसे परदे पर किरदार बदलते हैं, इधर पीढिय़ां बदल जाती हैं। आधुनिकता का लबादा ओढ़े नई पीढ़ी सामने आ जाती है, लेकिन पुरातन पीढ़ी भी अपने तमाम पूर्वाग्रहों के साथ मैदान में डटी रहती है। अगर कुछ नहीं बदलता है, तो वो है सिनेमा, जो हमेशा अपने सुपर हिट मेलोड्रामा के साथ नई और सार्थक संभावनाएं तलाशता रहता है।....’

कहने की शायद जरूरत नहीं है कि इधर फिल्मकारों की एक पूरी नई पीढ़ी सामने आ गई है। करण जौहर से लेकर राजकुमार हीरानी तक या फिर प्रकाश झा से लेकर दीपा मेहता तक। हरेक की अपनी-अपनी प्रतिबद्धताएं हैं और प्रतिबद्धता के बावजूद मनोरंजन के तत्व से भी उन्होंने किनारा नहीं किया है। नई पीढ़ी के फिल्मकारों में एक बात समान है और वह यह कि इस पीढ़ी ने सामाजिक विद्रूपताओं पर आंसू बहाने की बजाय उन्हेें मनोरंजन के फार्मूलों के सहारे एक अनूठे और दिलचस्प तरीके से हमारे सामने रखा है और इन त्रासदियों को दूर करने की एक सार्थक पहल भी की है। वे अपने इस प्रयास में कहां तक कामयाब हुए हैं, यह जांचना समाज शास्त्रियों का काम है। लेकिन इस बात से शायद ही कोई इनकार करेगा कि विषयों में नवीनता और मौलिकता के कारण उनकी फिल्मों ने एक बड़े दर्शक वर्ग को अपना बनाया है। चाहे अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से उपजे मसले हों (‘माई नेम इज खान’) या फिर हमारे समाज से जुड़ा जातिगत आरक्षण का अत्यंत संवेदनशील मामला हो (‘आरक्षण’), हमारे समकालीन फिल्मकारों ने तमाम विषयों को काल्पनिकता और नाटकीयता की चाशनी में डुबोकर हमारे सामने पेश किया है। ये ऐसे फिल्मकार हैं, जो सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर जुबान बंद नहीं रखते, बल्कि सिनेमा के जरिए और सिनेमा से इतर दूसरे मंचों पर मुखर रूप से खुद को अभिव्यक्त करते हैं।
प्रयोगधर्मी फिल्मकारों की इस पीढ़ी में एक सिरे पर राजकुमार हीरानी हैं, तो दूसरी तरफ करण जौहर भी हैं। सिनेमा माध्यम का इस्तेमाल दोनों ने अपने अंदाज में किया है और दोनों ने ही विशाल दर्शक वर्ग को अपना बनाया है। अपने इंटरव्यू में दोनों ही अन्यतम अंतरंगता के साथ अपनी फिल्मों और उनके किरदारों की चर्चा करते हैं। साथ ही परदे पर काव्यनुमा फिल्में (‘देवदास’, ‘गुजारिश’) रचने वाले संजय लीला भंसाली भी हैं, जो बाजारवाद के वशीभूत होकर ‘राउडी राठौड़’ का दामन थामते नजर आते हैं। कोई प्रतिबद्ध फिल्मकार किन परिस्थितियों में बाजार के आगे नतमस्तक होता है, इसे समझना हो, तो संजय भंसाली का जीवन वृत्त देख लीजिए। उन्हें एक सुलझा हुआ निर्देशक माना जाता है, जो दर्शकों की पसंद के अनुसार नहीं, बल्कि अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के आधार पर फिल्में बनाना पसंद करता है, और जो इस बात से बेपरवाह है कि उसकी फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर कैसी प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ेगा। संभावनाओं से भरपूर यह फिल्मकार जब बॉक्स ऑफिस के पैमानों पर नाकाम साबित होता है, तो उनके आलोचक भी इसकी वजह तलाशने में जुट जाते हैं।

बहरहाल, यह कहा जा सकता है कि अपनी फिल्मों के जरिए परदे पर नई इबारत लिखने वाले लगभग सभी फिल्मकारों ने इंटरव्यू के दौरान अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में ईमानदारी से चर्चा की है।
किताब हमें बताती है कि नई पीढ़ी के फिल्मकारों का मकसद साफ है - मनोरंजन के माध्यम से देश, दुनिया और समाज में परिवर्तन की मामूली ही सही, लेकिन उत्तेजक लहर पैदा करना। क्या इस लहर का प्रभाव देर तक रह सकता है? दरअसल यह सोचना किसी फिल्मकार का काम नहीं है। जहां उसका काम खत्म होता है, वहीं से समाज की भूमिका शुरू होती है। संयोग यह है कि सिनेमा के जरिए परिवर्तन की जो लहर उठी है, हमारे समाज ने खुली बाहों के साथ उसका स्वागत किया है। कुछ अर्सा पहले तक क्या कोई सोच सकता था कि ‘विक्की डोनर’ जैसी कोई फिल्म आएगी और उसे बॉक्स ऑफिस पर अच्छी-खासी कामयाबी हासिल होगी? ‘विक्की डोनर’ का बजट था सिर्फ पांच करोड़ रुपए और रिलीज होने के एक महीने के अंदर इस फिल्म ने 35.50 करोड़ रुपए का कारोबार किया। फिल्म में एक अलग से विषय को बहुत ईमानदारी से पेश किया गया और यही फिल्म की सफलता का राज है। किताब हमें बताती है कि अनूठे और अनछुए विषय लोगों को लुभाते हैं, लेकिन कोई भी विषय अकेले ही फिल्म को संभाल नहीं सकता। उसके साथ निर्देशक और कलाकारों के ईमानदार प्रयास भी होने चाहिए। फिल्म ‘विक्की डोनर’ में एक नाजुक सामाजिक मुद्दे को उठाया गया है जिस पर लोग अकसर बात करने से हिचकिचाते हैं, एक ऐसा विषय जिसे अब तक वर्जित माना जाता था, जिसके बारे में सिर्फ बंद दरवाजों के पीछे ही बात की जाती थी, अब वह सामने आ गया है। अब लोग स्पर्म डोनेशन और इनफर्टिलिटी के बारे में खुल कर बात करने लगे हैं। और थोड़ा पीछे चलते हैं, तो याद आता है ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ और ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ का दौर। या फिर ‘3 इडियट्स’ को ही लीजिए। इन फिल्मों ने मनोरंजन के नए मुहावरे रचे और इसीलिए इन्हें अपने दौर की बेहद कामयाब फिल्मों में शामिल किया जाता है। इन तीनों फिल्मों के निर्देशक हैं राजकुमार हीरानी, जो परदे पर खूबसूरत फेंटेसी रचने में माहिर माने जाते हैं। 

जिस तरह फेंटेसी में तर्क के लिए कोई स्थान नहीं होता, ठीक उसी तरह इन तीनों फिल्मों में भी अतार्किक घटनाओं की भरमार है। लेकिन इन फिल्मों की मूल संरचना कुछ ऐसी है कि फेंटेसी भी जादुई यथार्थ के करीब नजर आती है। शायद इसीलिए ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ वाले मुन्ना की जादू की झप्पी देशभर में चर्चित हो जाती है और ‘3 इडियट्स’ वाले रैंचो का ऑल इज वैल का नारा अपने समय में राष्ट्रीय महत्त्व का विषय बन जाता है। एक खास बात और....तीनों फिल्में हास्य मूलक होते हुए भी बड़े गंभीर मुद्दों की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं। एक तरफ जहां ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ डॉक्टरी पेशे से गुम होती संवेदनाओं और दुर्लभ होती मानवीयता की तरफ संकेत करती है, वहीं दूसरी तरफ ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ इस सच्चाई को एक बार फिर रेखांकित करती है कि हम लोगों ने बापू के जीवन मूल्यों को लगभग भुला दिया है और उन्हें किताबों में कैद करके रख दिया है। ‘3 इडियट्स’ तो हमारी समूची शिक्षा प्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े करती है और अत्यंत मनोरंजक तरीके से हमें बताती है कि हमारे शिक्षा मंदिर कैसी पीढ़ी रच रहे हैं। 
राजकुमार हीरानी अकेले ऐसे फिल्मकार नहीं हैं जिन्होंने सामाजिक प्रतिबद्धता की मशाल को मजबूती से थाम रखा है। इस संघर्ष में उनके साथ मधुर भंडारकर भी हैं जो विशुद्ध कॉमर्शियल सिनेमा रचते हैं, लेकिन अपनी फिल्मों के लिए तल्ख और चुभने वाले विषय चुनते हैं। ‘चांदनी बार’ में वे मुंबई के शराबखानों में नाचने और जिस्म दिखाने के लिए मजबूर होने वाली लड़कियों की जिंदगी के स्याह पक्षों को सामने रखते हैं, तो ‘पेज 3’ में वे हाई सोसायटी के चिकने-चुपड़े चेहरों को बड़ी बेरहमी के साथ बेनकाब करते हैं। या फिर उनकी फिल्म ‘कॉर्पोरेट’ को ही लीजिए, जिसमें वे औद्योगिक घरानों की अंदरूनी चालों और साजिशों का परदाफाश करते हैं। ये फिल्में कहीं ना कहीं उन नैतिक मूल्यों की तरफ भी इशारा करती हैं, जिनसे हम तेजी से विमुख होते जा रहे हैं। 

‘सिनेमा का स$फर’ को पढऩे के दौरान यह बात बार-बार रेखांकित होती है कि सिनेमा का जितना विस्तार हुआ है, उसकी तुलना में इसकी विश्वसनीयता नहीं बढ़ी है, खास तौर पर हमारे देश के मुख्य धारा के सिनेमा के संदर्भ में तो यह बात कही जा सकती है। इसके बचाव में यह तर्क भी दिया जा सकता है कि दर्शक जो देखना चाहते हैं, हम वही दिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं। लेकिन ऐसा कहना अपनी जिम्मेदारियों से भागना है, और कुछ नहीं। तसल्ली की बात यह है सारे के सारे फिल्मकार इसी (कु)तर्क के सहारे अपनी फिल्मों का बचाव नहीं कर रहे। मौजूदा दौर में फिल्मकारों की एक पीढ़ी ऐसी भी है जो अपनी फिल्मों के सहारे उस मिथक को तोडऩे में जुटी है, जो हमें यह सिखाता है कि सिनेमा कभी भी परिवर्तन का वाहक नहीं बन सकता। नई पीढ़ी के फिल्मकारों ने मानवीय गरिमा और जीवन मूल्यों को तरजीह देते हुए एक नए किस्म का सिनेमाई मुहावरा रचा है। ये ऐसे फिल्मकार हैं, जो सिनेमा को सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं समझते। उनके लिए परछाइयों का यह खेल जीवन की सच्चाइयों को सामने लाने का एक प्रभावी जरिया है। उन्होंने यथार्थवादी संवेदनशीलता को बरकरार रखते हुए अपनी फिल्मों में अलहदा बिंब, रूपक और विधान रचे। यही कारण है कि बाहर से बहुत साधारण-सी नजर आने वाली उनकी फिल्मों में जब हम गहराई तक झांकते हैं, तो उनमें हमें हमारी जिंदगी का हर वो रंग नजर आता है, जो बेपनाह दर्द से गुजरने के बावजूद मुहब्बत की खुशबू से महकता रहा है। न इन फिल्मों को भूल पाना मुमकिन है और न उन फिल्मकारों की तरफ से हम मुंह मोड़ पाएंगे, जिन्होंने हिंदुस्तानी सिनेमा के सौ साला सफर में कदम से कदम मिलाकर हमेशा नई संभावनाओं की तलाश की है। 
ऐसे समय में जबकि भारतीय सिनेमा शताब्दी का जश्न मना रहा है, वर्तमान दौर के चर्चित और कामयाब फिल्मकारों से गुफ्तगू करना, उनसे रूबरू होना एक अनूठे अहसास की अनुभूति कराता है। सिने प्रेमियों के साथ सिनेमा के शोधार्थियों के लिए भी यह पुस्तक बेहद उपयोगी साबित हो सकती है। 

प्रिंट मीडिया का पच्चीस वर्षों से अधिक का अनुभव अपने भीतर संजोए लेखक श्याम माथुर की फिल्म पत्रकारिता में विशेष दिलचस्पी रही है। उन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में नियमित भागीदारी की है। सिनेमा, टेलीविजन और संगीत से जुड़े विषयों पर पिछले तीन दशकों से वे बहुआयामी लेखन करते रहे हैं। पूर्व में उनकी तीन पुस्तकें  प्रकाशित हो चुकी हैं। ये हैं-- ‘अमिताभ तुझे सलाम’ , ‘सिने पत्रकारिता’ और ‘वेब पत्रकारिता’। इनमें ‘सिने पत्रकारिता’ को केंद्रीय सूचना-प्रसारण मंत्रालय के भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कारों की शृंखला में राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम पुरस्कार मिल चुका है, जबकि पुस्तक ‘वेब पत्रकारिता’ को केंद्रीय गृह मंत्रालय की तरफ से राजीव गांधी राष्ट्रीय ज्ञान-विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन योजना के तहत राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। लेखक से इस पते पर संपर्क किया जा सकता है - 32/13, सैक्टर नं. 3, प्रताप नगर, सांगानेर, जयपुर - 302033 (फोन- 9414305012,  0141-2790088/ )  

पुस्तक ‘सिनेमा का स$फर - निर्देशकों के साथ’ का प्रकाशन राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी ने किया है। पुस्तक में यथास्थान चित्रों का भी भरपूर इस्तेमाल किया गया है और ब्लैक एंड व्हाइट होते हुए भी तमाम चित्र आकर्षक स्वरूप में प्रकाशित किए गए हैं। करीब 175 पेज की इस पुस्तक का मूल्य है 130 रुपए। जो सिने प्रेमी इस पुस्तक को प्राप्त करना चाहें, वे इस पते पर संपर्क कर सकते हैं-- निदेशक, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, प्लॉट नं. 1, झालाना सांस्थानिक क्षेत्र, जयपुर - 302004 (फोन नंबर - 0141-2711129, 2710341)।
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4 comments:

  1. Nice sir, Bahut-Bahut BADHAI.
    Praveen Jakhar

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  2. Aapki Nai kitaab dekhkar vaakai bahut achchaa laga sir... Thanks for sharing with me. Thanks & congratulation :)

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  3. भाई श्याम जी !

    आपकी यह पुस्तक भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष के सफ़र के सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण कड़ी है. आपका लेखन और शोध सदा से उत्तम रहा है. पूर्व में भी आपके द्वारा लिखित आलेख और कई पुस्तकों को जिस प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर मान-सम्मान मिलता रहा है वह आपके प्रभावी लेखन के विभिन्न आयामों को ही दर्शाता है.
    अनन्त बधाई और आत्मिक शुभ कामनाएं भाई श्याम जी !
    आभार !
    डॉ. राजीव श्रीवास्तव
    मोबाइल: 09415323515

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