Saturday, April 25, 2015

सारेगामा ने लॉन्च किया ऑनलाइन म्यूजिक स्टोर


चौदह भाषाओं में एक लाख से अधिक गाने! और इन गीतों को आप सुन भी सकते हैं और चाहें तो खरीद भी सकते हैं। यह संभव हुआ है म्यूजिक कंपनी सारेगामा की एक अनूठी पहल से। कंपनी ने पिछले हफ्ते अपना ऑनलाइन संगीत स्टोर लॉन्च किया है, जहां आप अपनी पसंद का कोई भी गीत खरीद सकते हैं। गीतों को कंप्यूटर या फोन के जरिए खरीदा जा सकता है और चूंकि ये गाने हाई फिडेलिटी में उपलब्ध हैं, लिहाजा इन्हें किसी भी आधुनिक म्यूजिक सिस्टम पर सुना जा सकता है। इसके लिए आपको चुकाने होंगे 9 रुपए प्रति गीत और आप अपने क्रेडिट कार्ड या डेबिट कार्ड अथवा नेट बैंकिंग के जरिए यह रकम अदा कर सकते हैं। खास बात यह है कि एक बार गाना खरीद लेने पर आप किसी भी कंप्यूटर पर या मोबाइल पर इस गीत को ट्रांसफर कर सकते हैं।
सारेगामा के लिए इतना ही बताना काफी है कि यह देश की सबसे पुरानी और सबसे समृद्ध म्यूजिक कंपनी है और कंपनी के खजाने में अनेक सदाबहार फिल्मी और गैर फिल्मी नगमे जमा हैं। गीता बाली, मुकेश, मुहम्मद रफी, लता मंगेशकर, आशा भोसले और किशोर कुमार के साथ गजल गायक जगजीत सिंह के भी अनेक हिट नगमे सारेगामा के ऑनलाइन स्टोर में हैं। साथ ही यहां शास्त्रीय संगीत का भी अनूठा कलैक्शन आपको मिलता है। पंडित रविशंकर से लेकर एम एस सुब्बूलक्ष्मी और पंडित भीमसेन जोशी की अनेक रचनाओं ने इस ऑनलाइन म्यूजिक स्टोर को समृद्ध किया है।

सारेगामा की जनसंपर्क प्रबंधक सीमा मुखर्जी का दावा है कि गुजरे जमाने के अनेक दुर्लभ और हिट नगमे भी इस स्टोर पर मिल जाएंगे। उनका कहना है कि कलैक्शन इस तरह डिजाइन किया गया है कि किसी भी गीत को तलाशना बहुत आसान है। आप अपने पसंदीदा गीतों की प्ले लिस्ट भी बना सकते हैं और उन्हें सेव भी कर सकते हैं। बॉलीवुड के गीतों के साथ प्रादेशिक गानों के लिए अलग से सैक्शन बनाया गया है।

डांस अकादमी शुरू करेंगे पप्पू खन्ना

जाने-माने कोरिओग्राफर पप्पू खन्ना अब अपनी डांस अकादमी शुरू करने जा रहे हैं. 500 से ज्यादा फिल्मों में  वाले पप्पू खन्ना के खाते में अनेक हिट गाने दर्ज़ हैं. अस्सी और नब्बे के दशक में ज्यादातर फिल्मों में कोरिओग्राफी  का काम पप्पू खन्ना ही करते थे. उनकी हिट फिल्मों में दामिनी, घातक, निकाह, लाल बादशाह और गोपीकिशन के नाम प्रमुख हैं.
डांस अकादमी का जिक्र हुए वे कहते हैं कि हाल के दौर में हिंदी फिल्मों में नाच-गानों का जो दौर  चला है, उसे देखते हुए ही उन्हें इस बारे में विचार आया.  वे कहते हैं कि नए कलाकारों में डांस सीखने की ललक तो है पर उन्हें  ठीक  तरीके से ट्रेनिंग नहीं मिल पाती।  इसीलिए उन्होंने एक डांस अकादमी शुरू करने का फैसला किया.

Saturday, April 18, 2015

सैटेलाइट टेलीविजन - आधुनिक परिदृश्य


मीडिया की दुनिया में यह सवाल आज सबसे अहम है कि भविष्य का मीडिया कैसा होगा? दरअसल दुनिया जिस तेजी से बदल रही है, उसे देखते हुए यह सवाल और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। कम शब्दों में इस सवाल का जवाब दिया जाए, तो कहा जा सकता है कि भविष्य में इंटरनेट पर नियंत्रण किया जाएगा, उच्च गुणवत्ता वाले डिजीटल टीवी होंगे, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के उपयोग के लिए शुल्क देना होगा और टैबलेट पी.सी. पर टीवी सीरियल देखे जाएँगे। लेकिन हर नई तकनीक पुरानी तकनीक का ही एक उन्नत रूप होती है। इसलिए टेलीविजजन, रेडियो और इंटरनेट प्रसारण के  नए उपकरण ही भविष्य में मीडिया के स्वरूप का निर्धारण नहीं करेंगे। मीडिया के स्वरूप का निर्धारण उपभोक्ताओं द्वारा ही किया जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि भविष्य में नई प्रौद्योगिकी नहीं, बल्कि उपभोक्ताओं का व्यवहार ही मीडिया के स्वरूप को निर्धारित करेगा।


जहाँ तक मीडिया के भविष्य का संबंध है तो निकट भविष्य में इसके विभिन्न रूपों के बीच कोई खास फर्क नहीं रह जाएगा। मल्टीमीडिया ही मुख्य रूप से दर्शकों और श्रोताओं का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करेगा। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि दर्शक या श्रोता खुद ही सामग्री का चयन करेंगे। वे ही यह निर्णय करेंगे कि कैसे कैमरे से खींची गई मूवी देखनी चाहिए या कैसे स्पीकर से आवाज सुननी चाहिए। पिछले कुछ समय में मीडिया क्षेत्र के विकास ने यह दर्शाया है कि पूरी दुनिया में प्रसारण के क्षेत्र में सरकारों और अन्य राष्ट्रीय नियामकों की भूमिका बढ़ेगी। सबसे अधिक संभावना इस बात की है कि विभिन्न देशों में अपनी-अपनी ऑनलाइन मीडिया प्रणालियों की स्थापना की जाएगी।
जब हम मीडिया के आधुनिक परिदृश्य की कल्पना करते हैं, तो उसमें सैटेलाइट टेलीविजन की जो अहमियत है, उसे कतई अनदेखा नहीं कर सकते। बहुत तेजी से सैटेलाइट टेलीविजन ने हमारे जीवन में एक अहम स्थान बना लिया है। मनोरंजन, ज्ञान-विज्ञान और सूचना के क्षेत्र में केबल टेलीविजन ने सत्तर के दशक में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई थी, पर सही अर्थों में टीवी दर्शकों ने इसे पहचाना 1990 के खाड़ी युद्ध में। टेड टर्नर के टीवी चैनल सीएनएन ने खाड़ी युद्ध का सीधा प्रसारण किया और लोगों ने अपने टीवी सैट्स पर युद्ध के दिल दहलाने वाले दृश्यों को देखा। अब तक अपने टेलीविजन पर फिल्मी गीतों और चटपटे कार्यक्रमों का आनन्द लेने में ही जुटे टीवी दर्शकों ने पहली बार केबल टीवी की क्षमता को पहचाना और देखते ही देखते केबल टीवी के नेटवर्क ने देश भर में अपने पैर पसार लिए। एक रिपोर्ट के मुताबिक 1991 में 49,450 घरों में केबल टीवी कनैक्शन पहुँच चुका था और ज्यादातर टीवी दर्शकों के लिए केबल टेलीविजन अब कोई नया शब्द नहीं रह गया था। लेकिन यह सिर्फ एक शुरुआत थी। तब किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि अगले दो दशकों के दौरान टेलीविजन की दुनिया में क्रांतिकारी बदलाव आ सकते हैं।
इसके दो दशक बाद यानी 2014 में हालात पूरी तरह बदल चुके हैं। अब हम डायरेक्ट टू होम (डीटीएच) के दौर में हैं। केबल टेलीविजन के बाद डीटीएच ने टेलीविजन देखने के हमारे अंदाज को पूरी तरह बदल दिया है। शहरी टीवी दर्शक आज डीटीएच के जरिए अपनी पसन्द के तमाम टीवी चैनलों के कार्यक्रमों का आनन्द ले रहे हैं। न सिर्फ घरेलू टीवी चैनल, बल्कि दुनियाभर के चैनलों को केबल टीवी की मार्फत सीधे अपने टीवी सैट पर हासिल किया जा सकता है। पर इतना जरूर है कि कई बार दर्शकों को वे तमाम कार्यक्रम और चैनल भी देखने पड़ते हैं, जिन्हें या तो वे नापसन्द करते हैं या जिन्हें अपने टीवी सैट पर नहीं देखना चाहते।
टैम की वर्ष 2013 की रिपोर्ट के अनुसार देश में ऐसे परिवारों की संख्या 14 करोड़ 40 लाख से ज्यादा है जहां टेलीविजन देखा जाता है और इनमें से 10 करोड़ 30 लाख परिवार ऐसे हैं जो केबल ऑपरेटर या डीटीएच के जरिए सैटेलाइट चैनल देख रहे हैं। शहरों में 85 फीसदी घरों में टीवी सैट हैं और इनमें से 70 फीसदी घरों में सैटेलाइट चैनल देखे जाते हैं।
लम्बे समय तक केबल टीवी ऑपरेटर अपनी मर्जी और पसन्द के मुताबिक टीवी चैनल अपने दर्शकों को दिखाते रहे और उनका शुल्क भी उनसे वसूलते रहे, भले ही दर्शकों ने उन्हें देखा हो अथवा नहीं। केबल ऑपरेटरों की इस प्रवृत्ति को नियन्त्रित करने के मकसद से 29 सितम्बर, 1994 को राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश जारी किया, जिसका शीर्षक था-'केबल टेलीविजन नेटवक्र्स (रेग्युलेशन) अध्यादेश-1994।Ó बाद में 17 जनवरी, 1995 को एक नया अध्यादेश जारी किया गया और इस अध्यादेश के स्थान पर संसद में एक विधेयक पेश किया गया, जिसे संसद की मंजूरी मिलने के बाद 'केबल टेलीविजन नेटवक्र्स (रेग्युलेशन) अधिनियम-1995Ó अस्तित्व में आया।
केबल अधिनियम का उद्देश्य देश में बेतरतीब तरीके से फैले केबल ऑपरेटरों के जाल को नियन्त्रित करना है। इस सिलसिले में केबल उपभोक्तओं के सुझावों और शिकायतों को भी पर्याप्त महत्त्व दिया गया और यह स्थापित करने का प्रयास किया गया है कि यह अधिनियम प्रसारण/प्रकाशन सम्बन्धी अन्य नियमों-विनियमों की पालना भी सुनिश्चित करेगा। सिनेमैटोग्राफ एक्ट-1952 और कॉपीराइट एक्ट-1957 के साथ महिलाओं का अशोभनीय प्रस्तुतीकरण (निषेध) अधिनियम-1986 को लागू करने का काम भी केबल अधिनियम के जरिए करने के प्रयास किए जा रहे हैं। जाहिर है कि बिना सेन्सर प्रमाण-पत्र वाली फिल्मों का प्रसारण रोकने और राष्ट्रहित में जरूरी सूचनाओं के प्रसारण को नियन्त्रित करने का काम भी केबल अधिनियम के जरिए किया गया है। इस तरह देश भर के हजारों केबल ऑपरेटरों के क्रियाकलापों पर अंकुश लगाने का यह अच्छा जरिया बना और लाखों करोड़ों केबल उपभोक्तओं ने भी राहत की साँस ली।
केबल अधिनियम के तहत प्रत्येक केबल ऑपरेटर के लिए रजिस्ट्रेशन अनिवार्य कर दिया गया है। इसके लिए एक निर्धारित आवेदन-पत्र के साथ पचास रुपए का रजिस्ट्रेशन शुल्क तय किया गया। रजिस्ट्रेशन की अवधि 12 महीने तय की गई है और यही अवधि नवीनीकरण पर भी लागू है। रजिस्ट्रेशन के लिए जिला मजिस्ट्रेट को अधिकृत किया गया और उन्हें किसी भी आवेदन को नामंजूर करने का अधिकार भी दिया गया।
महत्त्वपूर्ण प्रावधान
1. किसी व्यक्ति को केबल टेलीविजन के जरिए ऐसे किसी विज्ञापन के प्रसारण/पुनप्र्रसारण का अधिकार नहीं होगा, जो अधिनियम की धारा 7 के तहत दिए गए विज्ञापन विनियम को पूरा नहीं करता हो;
2. प्रत्येक केबल ऑपरेटर को एक रजिस्टर रखना होगा, जिसमें उसके द्वारा प्रसारित किए गए चैनलों का सम्पूर्ण विवरण होगा। इस तरह का विवरण प्रसारण के बाद एक वर्ष तक की अवधि में भी रखना होगा;
3. केबल ऑपरेटर को दूरदर्शन के कम से कम दो चैनलों का प्रसारण अनिवार्य रूप से करना होगा;
4. केबल नेटवर्क के लिए ऑपरेटर को मानक उपकरणों का प्रयोग करना होगा। ये उपकरण भारतीय मानक ब्यूरो से प्रमाणित होने चाहिएं;
5. ऑपरेटर को यह भी ध्यान में रखना होगा कि कहीं उसका प्रसारण नेटवर्क अन्य किसी अधिकृत दूरसंचार प्रणाली के संकेतों को बाधित तो नहीं कर रहा;
6. अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने पर सक्षम अधिकारी को केबल नेटवर्क से सम्बन्धित उपकरणों को जब्त करने का अधिकार होगा। जब्त किए गए उपकरणों को जिला न्यायालय की अनुमति के बिना दस दिन से अधिक समय तक जब्त नहीं रखा जा सकेगा; और
7. अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने पर दण्ड का प्रावधान भी किया गया-(अ) पहली बार अपराध करने पर दो वर्ष की सजा और/या अधिकतम एक हजार रुपए का जुर्माना; एवं (ब) बार-बार अपराध कारित करने पर पाँच वर्ष की सजा और अधिकतम पाँच हजार रुपए का जुर्माना।
केबल नेटवर्क संशोधन विधेयक - 2002
वर्ष 2002 में संसद ने केबल नेटवर्क संशोधन विधेयक को मंजूरी दी। इस संशोधन विधेयक में ऐसे उपाय किए गए, जिससे कि केबल ऑपरेटरों के हाथों उपभोक्ताओं का शोषण रोका जा सके। विधेयक के जरिए इस बात को सुनिश्चित किया गया कि उपभोक्ता सैट टॉप बॉक्स के जरिए अपनी पसन्द के पे-चैनल देख सके। नए विधेयक में केबल ऑपरेटरों को दो तरह के चैनल दिखाने की अनुमति होगी-फ्री टू एयर या मुक्त चैनल और पे-चैनल यानी भुगतान पर उपलब्ध चैनल। मुक्त चैनलों के लिए उपभोक्ताओं को कोई मासिक शुल्क नहीं देना होगा। इस सुविधा के लिए शुरू में लिए जाने वाले शुल्क की सीमा भी सरकार तय करेगी। लेकिन केबल ऑपरेटर पे-चैनलों का शुल्क अपने हिसाब से तय कर सकेंगे। पे-चैनलों के लिए केबल ऑपरेटरों पर शुल्क सूची प्रदर्शित करने की अनिवार्यता लागू की गई, ताकि उपभोक्ता इस सूची को देख कर अपनी पसन्द के चैनलों का चयन कर सकें।
नए विधेयक में यह व्यवस्था भी की गई कि सभी टेलीविजन चैनलों और केबल ऑपरेटरों को अपने दर्शकों और राजस्व आदि के बारे में जानकारी सरकार को देनी होगी। संशोधन विधेयक के क्रम में सरकार ने भी स्पष्ट किया कि उसका इरादा टेलीविजन कार्यक्रमों पर किसी तरह का अंकुश लगाने का नहीं है। सरकार ने इस तरह डायरेक्ट टु होम (डीटीएच) व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त किया और सैट टॉप बॉक्स तथा डिश एण्टीना के जरिए सीधे घर पर प्रसारण/सिगनल प्राप्त करने का एक नया प्रावधान किया।
सरकार ने केबल टेलीविजन नेटवर्क (नियंत्रण) अधिनियम, 1995 में संशोधन करते हुए इस एक्ट में एक नया अनुच्छेद 4(ए) जोड़ा। इस एक्ट के तहत सरकार ने केबल ऑपरेटरों के लिए निश्चित प्रावधान तय किए। प्रमुख प्रावधानों पर एक नजर-
1. प्रत्येक केबल ऑपरेटर को एक निर्धारित प्रपत्र में सरकार के समक्ष यह जानकारी प्रस्तुत करनी होगी-
(अ) ग्राहकों की कुल संख्या का विवरण
(ब) मासिक चंदे की दर
(स) पे चैनल और फ्री टू एयर चैनल का विवरण
2. केबल ऑपरेटर को अपने ग्राहकों को स्पष्टï रूप में यह बताना होगा कि पे चैनल देखने की एवज में उन्हें कितनी राशि का भुगतान करना होगा और इस राशि में परिवर्तन कितने दिनों के अंतराल पर होगा।
3. प्रत्येक केबल ऑपरेटर को अपने राज्य, शहर, कस्बे या क्षेत्र के लिए निर्धारित तिथि के अनुसार पे चैनलों का प्रसारण करना होगा। इसके साथ ही चैनलों का प्रसारण उपलब्ध सिस्टम के जरिए करना होगा।
4. केबल ऑपरेटर के लिए अपने चैनल पैकेज में फ्री टू एयर चैनल शामिल करना अनिवार्य होगा। केबल पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रम मनोरंजक, ज्ञानवद्र्धक और शिक्षाप्रद होने चाहिएं।
5. प्रत्येक राज्य, शहर, कस्बे या क्षेत्र में केन्द्र सरकार द्वारा निर्धारित संख्या के मुताबिक फ्री टू एयर चैनलों का प्रसारण करना होगा।
6. सरकार ने केबल किराये की अधिकतम राशि तय की है। केबल ऑपरेटर केबल धारक से केन्द्र सरकार द्वारा तय राशि से ज्यादा की मांग नहीं कर सकते हैं।
7. सरकार द्वारा देश के अलग-अलग राज्यों, शहरों, कस्बों और क्षेत्रों के लिए केबल किराये की अधिकतम राशि अलग-अलग तय की गई।
8. केबल ऑपरेटरों को जन सारधाण को सूचित करना होगा कि वे प्रसारित किए जा रहे पे चैनलों के लिए कितना भुगतान कर रहे हैं।
9. केबल धारकों को टेलीविजन नेटवर्क से पे चैनलों के सिग्नल प्राप्त करने के लिए अलग से कोई रिसीवर सैट लगाने की जरूरत नहीं होगी।
10. प्रत्येक केबल ऑपरेटर को केन्द्र सरकार को एक रिपोर्ट पेश करनी होगी, जिसमें कुल कनेक्शनों की संख्या और मासिक किराए के साथ पे चैनलों का ब्यौरा भी देना होगा।
इसी क्रम में कुछ अर्सा पहले सरकार ने देश के चार महानगरों में कण्डीशनल एक्सेस सिस्टम- कैस लागू करने के प्रयास भी किए। सर्वप्रथम सरकार ने घोषणा की कि
15 जुलाई, 2003 से चार महानगरों-दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई में 'कैसÓ को लागू किया जाएगा। पर व्यापक विरोध के बाद सरकार ने यह तिथि बढ़ाकर 1 सितम्बर कर दी। तत्कालीन सूचना-प्रसारण मंत्री रविशंकर प्रसाद ने केबल ऑपेरटरों के मनमाने व्यवहार से उपभोक्ताओं को मुक्ति दिलाने के लिए कैस को महत्त्वपूर्ण बताया। कैस लागू होने के बाद उपभोक्ताओं को चैनल देखने के लिए एक सैट टॉप बॉक्स की जरूरत बताई गई, पर तमाम प्रयासों के बावजूद कण्डीशनल एक्सेस सिस्टम लागू नहीं हो सका।
इस दौरान डायरेक्ट टू होम सेवा ने चरणबद्ध तरके से अपना विस्तार किया। प्रतिस्पर्धात्मक बाजार के चलते डीटीएच सेवा के उपकरणों की दरें भी काफी कम हो गई। आज मुख्य तौर पर डीडी डायरेक्ट, डिश टीवी, टाटा स्काई, एयरटेल, सन डायरेक्ट, रिलायंस डिजीटल टीवी और वीडियोकॉन डी2एच के नाम से डीटीएच सेवा बाजार में उपलब्ध है। केबल टेलीविजन नेटवर्क से जुड़े उपभोक्ताओं की संख्या भी आज तेजी से बढ़ती जा रही है (देखें टेबल)।
शहरों में केबल नेटवर्क का विस्तार
वर्ष केबल कनेक्शन
जनवरी 1992 4,12,000
नवम्बर 1992 30,30,000
जनवरी 1994 70,40,000
दिसम्बर 1994 1,10,80,000
जनवरी 1996 1,80,10,000
जनवरी, 1999 2,20,16,000
दिसम्बर, 2000 2,80,10,000
जनवरी, 2004 6,50,00,000
जनवरी, 2010 8,30,00,000
जनवरी, 2013 10,30,00,000
केबल टीवी उपभोक्ताओं की बढ़ती संख्या के बाद अगर हम उपभोक्तओं की सन्तुष्टि की बात करें, तो साफ झलकता है कि इस दिशा में अभी हमें काफी लम्बा फासला तय करना है। आज भी ज्यादातर केबल ऑपरेटर अपनी पसन्द के चैनलों का प्रसारण अपने नेटवर्क के जरिए कर रहे हैं। उपभोक्ताओं की पसन्द या मर्जी की कहीं कोई अहमियत नजर नहीं आती। औसतन 30 से 60 चैनलों का पैकेज ज्यादातर केबल ऑपरेटर ऑफर करते हैं,बदले में 200 से 350 रुपए का शुल्क वसूला जाता है। उपभोक्ता के सामने कोई विकल्प नजर नहीं आता। केबल ऑपरेटर ही यह निर्णय करता है कि उसे कोन से चैनल देखने हैं। प्रसारण की गुणवत्ता की बात करना तो अभी बेमानी है। केबल ऑपरेटर अपने व्यवसाय में बहुत अधिक पूँजी का निवेश करने के इच्छुक नजर नहीं आते और कम क्षमता के डिश एन्टीना तथा साधारण उपकरणों के जरिए वे केबल नेटवर्क का संचालन करते हैं।
इसी सिलसिले में हाल के दौर में कुछ बड़ी और अन्तरराष्ट्रीय कम्पनियों के भी केबल के मैदान में कूदने के संकेत मिले हैं। अमरीका की तीन बड़ी कम्पनियों-युनाइटेड इण्टरनेशनल होल्डिंग्स (यूआईएच), फाल्कन केबल और टेलीक्म्युनिकेशन इनकॉरपोरेटेड (टीसीआई) ने भारत के केबल बाजार में गहरी दिलचस्पी दिखाई है। इन कम्पनियों ने साझेदारी के आधार पर इस मैदान में उतरने की तैयारी कर ली है। टाइम्स ऑफ इण्डिया समूह और आरपीजी समूह जैसे बड़े कारोबारी घरानों ने भी अमरीकी कम्पनियों से हाथ मिलाने की पहल की है। हाल ही में फाल्कन केबल ने नई दिल्ली में हिन्दुस्तान टाइम्स के साथ संयुक्त रूप से 'इण्डिया इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजीस लिमिटेडÓ नामक कम्पनी की शुरुआत की है। सांसद विजय माल्या के यूबी ग्रुप ने भी यूआईएच से हाथ मिलाया है। केबल ऑपरेटर के व्यवसाय में उतरी कुछ बड़ी कम्पनियाँ-
1. इन केबलनेट (हिन्दुजा समूह द्वारा संचालित)
2. सिटी केबल (जी टीवी और न्यूज टेलीविजन का संयुक्त उपक्रम)
3. एशियानेट
4. हैथवे केबल एण्ड डॉट कॉम
5. ऑरटेल कम्युनिकेशन्स
6. आरपीजी नेटकॉम (आरपीजी ग्रुप की कम्पनी)
7. कॉक्स कम्युनिकेशन्स
स्पष्ट है कि केबल व्यवसाय आज चौतरफा पाँव पसार रहा है। सैटेलाइट चैनलों की बढ़ती लोकप्रियता के कारण केबल टीवी से जुडऩे वाले परिवारों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। एक अध्ययन के अनुसार 1996 में दिल्ली में केबल टीवी से जुड़े सैटेलाइट चैनलों के कार्यक्रम देखने वाले दर्शकों की संख्या (कुल टीवी दर्शकों की संख्या में) 11.6 प्रतिशत थी, जो आज बढ़ कर 22.8 प्रतिशत हो गई है। केबल टीवी देखने वाले दर्शकों का राज्यवार प्रतिशत (आधार वर्ष 2003)-
राज्य प्रतिशत
राजस्थान 33.9
गुजरात 62.5
तमिलनाडु 53.2
आन्ध्रप्रदेश 62.1
मध्यप्रदेश 49.8
पंजाब 43.8
महाराष्ट्र 66.9
हरियाणा 33.8
उड़ीसा 25.2
बिहार 26.7
स्रोत-सोनी टेलीविजन के लिए आईएमआर सर्वे।

केबल टेलीविजन की दुनिया में वर्ष 2013 में एक अहम बदलाव तब आया, जब टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई - भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण) ने केबल टीवी के डिजिटलीकरण की मुहिम शुरू की। ट्राई ने साफ कहा कि डिजिटलीकरण के तहत कस्टमर वेरिफिकेशन में अब और सुस्ती बरती नहीं जाएगी। ट्राई ने कहा है कि देश के 38 शहरों में जहां केबल के डिजिटलीकरण की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है, वहां हर हाल में सभी कस्टमरों को वेरिफिकेशन फॉर्म जमा करने ही होंगे, वरना उनकी सेवा बंद कर दी जाएगी। हालांकि मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ शहरों में काम की प्रगति लक्ष्य से काफी कम है, ऐसे में वहां कुछ और दिनों की मोहलत दी गई। ट्राई के अनुसार नई गाइडलाइंस का पालन दिल्ली और इससे सटे इलाकों में तो ढंग से हुआ है, दूसरे राज्यों के शहरों में अभी भी काम बाकी है। उन्होंने कहा कि ट्राई ने हल्की राहत दी है और इसके बाद इसमें कोई और विचार नहीं होगा। ट्राई ने बिना किसी कारण के इसमें हो रही देरी पर अंसतोष जताया। उसने कहा कि पहले से तय योजना के अनुसार केबल कस्टमरों को अपने यूज के हिसाब से बिल मिलने लगेंगे। ट्राई के नए निर्देश के तहत अब केबल ऑपरेटर को हर ग्राहकों को उनका महीने के बिल का पूरा ब्योरा देना होगा और लोग अपने हिसाब से हर महीने इसे तय कर सकेंगे। इस दौरान यदि कोई अपने घर से बाहर गया है, तो उसे उस समय का बिल नहीं देना होगा, बशर्ते उसने समय रहते इसकी सूचना केबल ऑपरेटरों को दी हो।
दिल्ली में डिजिटलीकरण का शत-प्रतिशत पालन हो गया है। एनसीआर में इसकी प्रक्रिया लगभग पूरी हो चुकी है। ऐसे लोगों की संख्या लगभग नहीं के बराबर है, जिन्होंने अब तक अपने फॉर्म जमा नहीं कराए हैं। बिलिंग की योजना भी तय प्रोग्राम के अनुसार लागू कर दी गई है। ट्राई के अनुसार अब केबल डिजिटलीकरण का तीसरा दौर शुरू होने वाला है।
ट्राई ने सैटेलाइट चैनलों को प्रति घंटे 12 मिनट की विज्ञापन सीमा में बांधने का प्रयास भी किया। ट्राई ने तय किया कि कोई भी टीवी चैनल हर घंटे 12 मिनट से अधिक का विज्ञापन या अन्य प्रचार सामग्री का प्रसारण नहीं कर सकता है। हालांकि ट्राई के इस फैसले के खिलाफ कई टीवी चैनल, अपीलीय न्यायाधिकरण टीडीसैट चले गए। ट्राई ने टीवी चैनलों के लिए एक घंटे में विज्ञापन के लिए 12 मिनट की सीमा तय कर दी। इससे पहले इंडियन ब्रॉडकास्टिंग फाउंडेशन ने विज्ञापन सीमा पर ट्राई के नियमन के खिलाफ अपनी याचिका वापस ले ली थी। ब्रॉडकास्टर कंपनियां सन टीवी, बी4यू ब्रॉडबैंड, 9 एक्स मीडिया तथा पालिमर मीडिया विज्ञापन सीमा के मुद्दे पर दूरसंचार विवाद निपटान एवं अपीलीय न्यायाधिकरण (टीडीसैट) चली गई। ये चारों ही आईबीएफ की सदस्य हैं। इसके अलावा टीवी विजन तथा ई24 ने भी विज्ञापन सीमा के खिलाफ टीडीसैट में अपील कर दी। आईबीएफ के एक अन्य सदस्य रिलायंस बिग ब्रॉडकास्टिंग प्राइवेट लि. ने भी इसी तरह की याचिका दायर की।
- श्याम माथुर

Friday, March 29, 2013

मेरी नई किताब



सिनेमा का सफर - निर्देशकों के साथ



किसी फिल्म के साथ निर्देशक के आत्मीय जुड़ाव को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। इसे सिर्फ वही महसूस कर सकता है, जिसने अभिव्यक्ति के असीमित रंगों में खुद को डुबो दिया हो। जब हम उनकी फिल्मों की चर्चा करते हैं, तो एक प्रकार से हम उनकी विलक्षण योग्यता और विलक्षण दृष्टि को ही याद करते हैं। यह दृष्टि जीवन को देखने मात्र की दृष्टि नहीं है, बल्कि इससे कुछ अधिक ही है। कुछ अर्थों में यह दृष्टि मानवतावादी पहलू पर आधारित है, जिसके सहारे फिल्मकार जीवन की लय और ताल को सुनने की कोशिश करते हैं। 
जाने-माने फिल्म पत्रकार श्याम माथुर की हाल ही प्रकाशित किताब ‘सिनेमा का स$फर - निर्देशकों के साथ’ ऐसे ही चंद फिल्मकारों की रचनात्मकता को समझने की एक अहम कोशिश है। इस किताब में उन्होंने दस समकालीन निर्देशकों के विस्तृत इंटरव्यू शामिल किए हैं और इस तरह आधुनिक सिनेमा की नवीन प्रवृत्तियों को समझने का प्रयास किया है। ये ऐसे फिल्मकार हैं, जिन्होंने व्यावसायिक सिनेमा के प्रचलित फॉर्मूलों के भीतर रहते हुए भी सिनेमाई मनोरंजन का एक नया मुहावरा रचने की कोशिश की है और इसमें वे किसी हद तक कामयाब भी हुए हैं।
किताब के बारे में अपनी लंबी और जज्बाती भूमिका में श्याम माथुर लिखते हैं, ‘सिनेमा के किस्सों में इंसानी जिंदगी के तमाम उतार-चढ़ाव और वो सारे जज्बात हमेशा मौजूद रहे हैं, जिनके सहारे सिनेमा हमारे दिल को हौले से छूकर गुजरता है। पिछले सौ वर्षों से यानी अपने जन्म से लेकर आज तक सिनेमा हमारे सुख-दुख का साथी रहा है। फिल्मों ने हमें हंसना और रोना सिखाया है, हमें अपने सपनों को नई बुलंदी देना सिखाया है, हमारी खुशियों को कहकहों की आवाज दी है, तो हमारे गमों को आंसुओं की सौगात भी दी है। ऐसे तमाम लोग मिल जाएंगे, जिनकी जिंदगी का कोई लम्हा ऐसा नहीं है, जिसे सिनेमाई जादू छूकर नहीं गुजरा हो। हमारी जिंदगी के जटिल प्रसंगों को कैसे और कब सरलता से दिल में उतार देता है सिनेमा, इसका जब हमें पता चलता है, तब तक हम सिनेमा की गिरफ्त में पूरी तरह डूब चुके होते हैं। फ्रेम दर फ्रेम कहानी आगे बढ़ती जाती है और जैसे परदे पर किरदार बदलते हैं, इधर पीढिय़ां बदल जाती हैं। आधुनिकता का लबादा ओढ़े नई पीढ़ी सामने आ जाती है, लेकिन पुरातन पीढ़ी भी अपने तमाम पूर्वाग्रहों के साथ मैदान में डटी रहती है। अगर कुछ नहीं बदलता है, तो वो है सिनेमा, जो हमेशा अपने सुपर हिट मेलोड्रामा के साथ नई और सार्थक संभावनाएं तलाशता रहता है।....’

कहने की शायद जरूरत नहीं है कि इधर फिल्मकारों की एक पूरी नई पीढ़ी सामने आ गई है। करण जौहर से लेकर राजकुमार हीरानी तक या फिर प्रकाश झा से लेकर दीपा मेहता तक। हरेक की अपनी-अपनी प्रतिबद्धताएं हैं और प्रतिबद्धता के बावजूद मनोरंजन के तत्व से भी उन्होंने किनारा नहीं किया है। नई पीढ़ी के फिल्मकारों में एक बात समान है और वह यह कि इस पीढ़ी ने सामाजिक विद्रूपताओं पर आंसू बहाने की बजाय उन्हेें मनोरंजन के फार्मूलों के सहारे एक अनूठे और दिलचस्प तरीके से हमारे सामने रखा है और इन त्रासदियों को दूर करने की एक सार्थक पहल भी की है। वे अपने इस प्रयास में कहां तक कामयाब हुए हैं, यह जांचना समाज शास्त्रियों का काम है। लेकिन इस बात से शायद ही कोई इनकार करेगा कि विषयों में नवीनता और मौलिकता के कारण उनकी फिल्मों ने एक बड़े दर्शक वर्ग को अपना बनाया है। चाहे अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से उपजे मसले हों (‘माई नेम इज खान’) या फिर हमारे समाज से जुड़ा जातिगत आरक्षण का अत्यंत संवेदनशील मामला हो (‘आरक्षण’), हमारे समकालीन फिल्मकारों ने तमाम विषयों को काल्पनिकता और नाटकीयता की चाशनी में डुबोकर हमारे सामने पेश किया है। ये ऐसे फिल्मकार हैं, जो सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर जुबान बंद नहीं रखते, बल्कि सिनेमा के जरिए और सिनेमा से इतर दूसरे मंचों पर मुखर रूप से खुद को अभिव्यक्त करते हैं।
प्रयोगधर्मी फिल्मकारों की इस पीढ़ी में एक सिरे पर राजकुमार हीरानी हैं, तो दूसरी तरफ करण जौहर भी हैं। सिनेमा माध्यम का इस्तेमाल दोनों ने अपने अंदाज में किया है और दोनों ने ही विशाल दर्शक वर्ग को अपना बनाया है। अपने इंटरव्यू में दोनों ही अन्यतम अंतरंगता के साथ अपनी फिल्मों और उनके किरदारों की चर्चा करते हैं। साथ ही परदे पर काव्यनुमा फिल्में (‘देवदास’, ‘गुजारिश’) रचने वाले संजय लीला भंसाली भी हैं, जो बाजारवाद के वशीभूत होकर ‘राउडी राठौड़’ का दामन थामते नजर आते हैं। कोई प्रतिबद्ध फिल्मकार किन परिस्थितियों में बाजार के आगे नतमस्तक होता है, इसे समझना हो, तो संजय भंसाली का जीवन वृत्त देख लीजिए। उन्हें एक सुलझा हुआ निर्देशक माना जाता है, जो दर्शकों की पसंद के अनुसार नहीं, बल्कि अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के आधार पर फिल्में बनाना पसंद करता है, और जो इस बात से बेपरवाह है कि उसकी फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर कैसी प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ेगा। संभावनाओं से भरपूर यह फिल्मकार जब बॉक्स ऑफिस के पैमानों पर नाकाम साबित होता है, तो उनके आलोचक भी इसकी वजह तलाशने में जुट जाते हैं।

बहरहाल, यह कहा जा सकता है कि अपनी फिल्मों के जरिए परदे पर नई इबारत लिखने वाले लगभग सभी फिल्मकारों ने इंटरव्यू के दौरान अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में ईमानदारी से चर्चा की है।
किताब हमें बताती है कि नई पीढ़ी के फिल्मकारों का मकसद साफ है - मनोरंजन के माध्यम से देश, दुनिया और समाज में परिवर्तन की मामूली ही सही, लेकिन उत्तेजक लहर पैदा करना। क्या इस लहर का प्रभाव देर तक रह सकता है? दरअसल यह सोचना किसी फिल्मकार का काम नहीं है। जहां उसका काम खत्म होता है, वहीं से समाज की भूमिका शुरू होती है। संयोग यह है कि सिनेमा के जरिए परिवर्तन की जो लहर उठी है, हमारे समाज ने खुली बाहों के साथ उसका स्वागत किया है। कुछ अर्सा पहले तक क्या कोई सोच सकता था कि ‘विक्की डोनर’ जैसी कोई फिल्म आएगी और उसे बॉक्स ऑफिस पर अच्छी-खासी कामयाबी हासिल होगी? ‘विक्की डोनर’ का बजट था सिर्फ पांच करोड़ रुपए और रिलीज होने के एक महीने के अंदर इस फिल्म ने 35.50 करोड़ रुपए का कारोबार किया। फिल्म में एक अलग से विषय को बहुत ईमानदारी से पेश किया गया और यही फिल्म की सफलता का राज है। किताब हमें बताती है कि अनूठे और अनछुए विषय लोगों को लुभाते हैं, लेकिन कोई भी विषय अकेले ही फिल्म को संभाल नहीं सकता। उसके साथ निर्देशक और कलाकारों के ईमानदार प्रयास भी होने चाहिए। फिल्म ‘विक्की डोनर’ में एक नाजुक सामाजिक मुद्दे को उठाया गया है जिस पर लोग अकसर बात करने से हिचकिचाते हैं, एक ऐसा विषय जिसे अब तक वर्जित माना जाता था, जिसके बारे में सिर्फ बंद दरवाजों के पीछे ही बात की जाती थी, अब वह सामने आ गया है। अब लोग स्पर्म डोनेशन और इनफर्टिलिटी के बारे में खुल कर बात करने लगे हैं। और थोड़ा पीछे चलते हैं, तो याद आता है ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ और ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ का दौर। या फिर ‘3 इडियट्स’ को ही लीजिए। इन फिल्मों ने मनोरंजन के नए मुहावरे रचे और इसीलिए इन्हें अपने दौर की बेहद कामयाब फिल्मों में शामिल किया जाता है। इन तीनों फिल्मों के निर्देशक हैं राजकुमार हीरानी, जो परदे पर खूबसूरत फेंटेसी रचने में माहिर माने जाते हैं। 

जिस तरह फेंटेसी में तर्क के लिए कोई स्थान नहीं होता, ठीक उसी तरह इन तीनों फिल्मों में भी अतार्किक घटनाओं की भरमार है। लेकिन इन फिल्मों की मूल संरचना कुछ ऐसी है कि फेंटेसी भी जादुई यथार्थ के करीब नजर आती है। शायद इसीलिए ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ वाले मुन्ना की जादू की झप्पी देशभर में चर्चित हो जाती है और ‘3 इडियट्स’ वाले रैंचो का ऑल इज वैल का नारा अपने समय में राष्ट्रीय महत्त्व का विषय बन जाता है। एक खास बात और....तीनों फिल्में हास्य मूलक होते हुए भी बड़े गंभीर मुद्दों की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं। एक तरफ जहां ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ डॉक्टरी पेशे से गुम होती संवेदनाओं और दुर्लभ होती मानवीयता की तरफ संकेत करती है, वहीं दूसरी तरफ ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ इस सच्चाई को एक बार फिर रेखांकित करती है कि हम लोगों ने बापू के जीवन मूल्यों को लगभग भुला दिया है और उन्हें किताबों में कैद करके रख दिया है। ‘3 इडियट्स’ तो हमारी समूची शिक्षा प्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े करती है और अत्यंत मनोरंजक तरीके से हमें बताती है कि हमारे शिक्षा मंदिर कैसी पीढ़ी रच रहे हैं। 
राजकुमार हीरानी अकेले ऐसे फिल्मकार नहीं हैं जिन्होंने सामाजिक प्रतिबद्धता की मशाल को मजबूती से थाम रखा है। इस संघर्ष में उनके साथ मधुर भंडारकर भी हैं जो विशुद्ध कॉमर्शियल सिनेमा रचते हैं, लेकिन अपनी फिल्मों के लिए तल्ख और चुभने वाले विषय चुनते हैं। ‘चांदनी बार’ में वे मुंबई के शराबखानों में नाचने और जिस्म दिखाने के लिए मजबूर होने वाली लड़कियों की जिंदगी के स्याह पक्षों को सामने रखते हैं, तो ‘पेज 3’ में वे हाई सोसायटी के चिकने-चुपड़े चेहरों को बड़ी बेरहमी के साथ बेनकाब करते हैं। या फिर उनकी फिल्म ‘कॉर्पोरेट’ को ही लीजिए, जिसमें वे औद्योगिक घरानों की अंदरूनी चालों और साजिशों का परदाफाश करते हैं। ये फिल्में कहीं ना कहीं उन नैतिक मूल्यों की तरफ भी इशारा करती हैं, जिनसे हम तेजी से विमुख होते जा रहे हैं। 

‘सिनेमा का स$फर’ को पढऩे के दौरान यह बात बार-बार रेखांकित होती है कि सिनेमा का जितना विस्तार हुआ है, उसकी तुलना में इसकी विश्वसनीयता नहीं बढ़ी है, खास तौर पर हमारे देश के मुख्य धारा के सिनेमा के संदर्भ में तो यह बात कही जा सकती है। इसके बचाव में यह तर्क भी दिया जा सकता है कि दर्शक जो देखना चाहते हैं, हम वही दिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं। लेकिन ऐसा कहना अपनी जिम्मेदारियों से भागना है, और कुछ नहीं। तसल्ली की बात यह है सारे के सारे फिल्मकार इसी (कु)तर्क के सहारे अपनी फिल्मों का बचाव नहीं कर रहे। मौजूदा दौर में फिल्मकारों की एक पीढ़ी ऐसी भी है जो अपनी फिल्मों के सहारे उस मिथक को तोडऩे में जुटी है, जो हमें यह सिखाता है कि सिनेमा कभी भी परिवर्तन का वाहक नहीं बन सकता। नई पीढ़ी के फिल्मकारों ने मानवीय गरिमा और जीवन मूल्यों को तरजीह देते हुए एक नए किस्म का सिनेमाई मुहावरा रचा है। ये ऐसे फिल्मकार हैं, जो सिनेमा को सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं समझते। उनके लिए परछाइयों का यह खेल जीवन की सच्चाइयों को सामने लाने का एक प्रभावी जरिया है। उन्होंने यथार्थवादी संवेदनशीलता को बरकरार रखते हुए अपनी फिल्मों में अलहदा बिंब, रूपक और विधान रचे। यही कारण है कि बाहर से बहुत साधारण-सी नजर आने वाली उनकी फिल्मों में जब हम गहराई तक झांकते हैं, तो उनमें हमें हमारी जिंदगी का हर वो रंग नजर आता है, जो बेपनाह दर्द से गुजरने के बावजूद मुहब्बत की खुशबू से महकता रहा है। न इन फिल्मों को भूल पाना मुमकिन है और न उन फिल्मकारों की तरफ से हम मुंह मोड़ पाएंगे, जिन्होंने हिंदुस्तानी सिनेमा के सौ साला सफर में कदम से कदम मिलाकर हमेशा नई संभावनाओं की तलाश की है। 
ऐसे समय में जबकि भारतीय सिनेमा शताब्दी का जश्न मना रहा है, वर्तमान दौर के चर्चित और कामयाब फिल्मकारों से गुफ्तगू करना, उनसे रूबरू होना एक अनूठे अहसास की अनुभूति कराता है। सिने प्रेमियों के साथ सिनेमा के शोधार्थियों के लिए भी यह पुस्तक बेहद उपयोगी साबित हो सकती है। 

प्रिंट मीडिया का पच्चीस वर्षों से अधिक का अनुभव अपने भीतर संजोए लेखक श्याम माथुर की फिल्म पत्रकारिता में विशेष दिलचस्पी रही है। उन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में नियमित भागीदारी की है। सिनेमा, टेलीविजन और संगीत से जुड़े विषयों पर पिछले तीन दशकों से वे बहुआयामी लेखन करते रहे हैं। पूर्व में उनकी तीन पुस्तकें  प्रकाशित हो चुकी हैं। ये हैं-- ‘अमिताभ तुझे सलाम’ , ‘सिने पत्रकारिता’ और ‘वेब पत्रकारिता’। इनमें ‘सिने पत्रकारिता’ को केंद्रीय सूचना-प्रसारण मंत्रालय के भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कारों की शृंखला में राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम पुरस्कार मिल चुका है, जबकि पुस्तक ‘वेब पत्रकारिता’ को केंद्रीय गृह मंत्रालय की तरफ से राजीव गांधी राष्ट्रीय ज्ञान-विज्ञान मौलिक पुस्तक लेखन योजना के तहत राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। लेखक से इस पते पर संपर्क किया जा सकता है - 32/13, सैक्टर नं. 3, प्रताप नगर, सांगानेर, जयपुर - 302033 (फोन- 9414305012,  0141-2790088/ )  

पुस्तक ‘सिनेमा का स$फर - निर्देशकों के साथ’ का प्रकाशन राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी ने किया है। पुस्तक में यथास्थान चित्रों का भी भरपूर इस्तेमाल किया गया है और ब्लैक एंड व्हाइट होते हुए भी तमाम चित्र आकर्षक स्वरूप में प्रकाशित किए गए हैं। करीब 175 पेज की इस पुस्तक का मूल्य है 130 रुपए। जो सिने प्रेमी इस पुस्तक को प्राप्त करना चाहें, वे इस पते पर संपर्क कर सकते हैं-- निदेशक, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी, प्लॉट नं. 1, झालाना सांस्थानिक क्षेत्र, जयपुर - 302004 (फोन नंबर - 0141-2711129, 2710341)।
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Saturday, September 4, 2010

जहाज के पंछी की तरह एक बार फिर ब्लॉग की दुनिया में आ गया हूँ......
कुछ सृजनात्मक लेखन/चिंतन/ मनन के मकसद से....!